माँ बेटियां और माटी अन्न देवी को सम्मान देने का पर्व है छत्तीसगढ़ का पोला त्योहार,, राम बालक दास,

माँ बेटियां और माटी अन्न देवी को सम्मान देने का पर्व है छत्तीसगढ़ का पोला त्योहार,, राम बालक दास,
माँ बेटियां और माटी अन्न देवी को सम्मान देने का पर्व है छत्तीसगढ़ का पोला त्योहार,, राम बालक दास,

माँ बेटियां और माटी अन्न देवी को सम्मान देने का पर्व है छत्तीसगढ़ का पोला त्योहार,, राम बालक दास,

प्रतिदिन सुबह 10 होने वाला ऑनलाइन सत्संग पाटेश्वर धाम अब पूरे देश मे प्रचारित हो रहा है , जालन्धर पंजाब से हरीश भाटिया जी के एक प्रश्न पर संत श्री राम बालक दास जी ने पोल त्योहार के बारे में आज सत्संग में बताया कि आज के दिन छत्तीसगढ़ में किशोर बछड़ा को गोल्लर के रूप में मान्यता दी जाती है। वह किसी के भी खेत में चर सकता है। उसके चरनें पर कोई प्रतिबंध नहीं। इसलिए कि वह लोक में पूजित स्थान प्राप्त कर लेता है। उसे भोले बाबा कहकर भी अभिहित किया जाता है।

उसे शिव वाहन अर्थात् नंदी की संज्ञा मिल जाती है। गाँवों में कुछ लोग नांदिया बैल सजाकर विभिन्न करतब दिखाते हैं। नांदिया बैल की सजावट ही निराली होती है। पीठ पर कपड़ो की आकर्षक सजावट, सींगों में सलीकेदार मयूर पीक की कलगी, गले में घंटी और पैरों में घुंघरू उसे उत्कृष्ट और पूज्य बनाते हैं।

ढोलकी की आवाज के बीच विभिन्न करतब दिखाता नांदिया बैल लोगों की श्रद्धा का पात्र इसलिए भी बनता है कि वह शिववाहन नंदी है। लोग श्रद्धापूर्वक उसके पेट के नीचे से अपने छोटे बच्चों को लेकर सुख-समृद्धि और स्वस्थ जीवन की कामना से निकलते हैं। यहाँ भी बैल के प्रति लोक का आदर भाव ही दृष्टिगोचर होता है। श्रद्धा और आदर हो भी क्यों न, वह उसके जीवन का सहचर जो है।

नांदिया का अस्तित्व तो अकेले में ही है, लेकिन बैल का अस्तित्व तो जोड़ी में है। नांदिया बैल में कृषक का बैल ही आरोपित है। इसलिए पोला के दिन अकेले नांदिया बैल की पूजा नहीं होती, बल्कि उसकी जोड़ी भी रहती है। अर्थात् पोला में दो बैलां की पूजा का विधान है।

इस दिन छत्तीसगढ़ में व्यंजन के रूप में विशेष सामाग्री ‘ठेठरी‘ और ‘खुरमी‘ बनायी जाती है। यहाँ भी शिव के प्रति लोक की आस्था प्रतिबिम्बत होती है। ठेठरी जिसकी आकृति जलहरी (प्रतीक रूप पार्वती) और खुरमी शिवलिंग (शंकर) रूप में प्रतीत होती है। यह लोक आस्था का चरमोत्कर्ष है।

यही ठेठरी, खुरमी अर्थात् (पार्वती व शिव) को कपड़े का ‘गोना‘ बनाकर नांदिया पर चढ़ाया जाता है। नांदिया (नंदी) पर शिव पार्वती ही तो सवार होंगे न। लोक का यह रूपक, लोक का यह बिम्ब अन्यत्र शायद ही मिले। पूजा के बाद नांदिया बैलों में ‘सीली‘ पहिया लगाकर बच्चों द्वारा दौड़ाया जाता है।

इस समय बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है। नांदिया बैलों के साथ पूजित जाता-पोरा, चुल्हा-चुकिया व मिट्टी के बने बर्तनों की खेल सामाग्री से बच्चे विशेषकर लड़कियाँ ‘सगा-पहुना‘ खेलकर बालपन में ही पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारी का अभिनय करती हैं।

पोला मूलतः कृषि संस्कृति से प्रेरित पर्व है। इसलिए पोला के दिन ‘दईहान‘ में शाम को बैल-दौड़ की प्रतियोगिता होती है। किसान अपनी बैलजोड़ी को आकर्षक ढ़ंग से सजाकर प्रतियोगिता में शामिल करते हैं। दौड़ होती है और विजयी बैलजोड़ी के साथ कृषक को भी पुरस्कृत किया जाता है।

इसी दिन शाम को ही रंग-बिरंगे पोशाकों में सज-धज कर किशोरियाँ औ महिलाएँ ’पोरा’ पटकने के लिए जाती हैं। गाँव के बाहर महिलाएँ एकत्रित होकर पोरा (घड़े का लघुरूप) फोड़ती हैं, जिसमें ठेठरी व खुरमी हैं। गाँव के बाहर या चौराहे पर जैसे मेला सा लगा रहता है। वातावरण में चारों तरफ गेंड़ीहारां की गेड़ी की आवाजे गूंजती है- रोहों पो पो रोहों पो पो …….।

यह वही बाँस की गेड़ी है जिसे हरेली के दिन से बच्चे महीने भर मचमच कर गाँव में खुशी और आनंद की बौछार करते हैं। आनंद और उमंग के इस महौल में गीतों के रूप में फूट पड़ती है। महिलाओं का समूह हाथां से ताली देकर युवा नृत्य में निमग्न हो जाता है।

लोक का यह करिश्माई प्रभाव हृदय के तारों को झनझना देता है और पाँवों में बरबस ही थिरकन पैदा हो जाती है। लोक नृत्य के समूह में शामिल ये हमारी वहीं बेटियाँ हैं, ये हमारी वही मांये हैं जो तीजा मनाने मायके आयीं है या मायके जाने वाली हैं।

ये वही बेटियाँ हैं, ये वही मांये हैं, ये वही बहने हैं जिनकी गर्भवती होने की खुशी में लोक ने ‘सधौरी‘ खिलाकर संतान सुख की कामना की थी। जिसे आज हमने पोला पर्व में ‘अन्न‘ के रूप में सम्मान व प्रतिष्ठा दी है।

अन्न व बेटी-बहन तथा मां के प्रति सम्मान का यह लोकपर्व पोला लोक पर्व की पहचान का प्रतीक है। पोला छत्तीसगढ़ी लोक जीवन की सांस्कृतिक अस्मिता का पर्याय है। लोक जीवन की सुख-समृद्धि का स्वर्णिम अध्याय है। शिव स्वरूप में कृषि संस्कृति लोक का आराध्य है।

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