सभार सदविप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज ज़ी अनमोल कृति रहस्यमय लोक से----"उत्तरायण"
सभार सदविप्र समाज सेवा एवं सदगुरु कबीर सेना के संस्थापक सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज ज़ी अनमोल कृति रहस्यमय लोक से----"उत्तरायण"
दशम द्वार के मुख्य द्वार पर आ गया। वह द्वारा अंदर से बंद था। उस द्वार पर स्वर्ण, हीरा जड़ित कार्य प्रतीत जय होता था। उस द्वार से भी विभिन्न प्रकार की रश्मियां नि:सरित हो रही थी। मैं कौतूहलवश उसे देखता रहा। उसे देखने में बहुत समय व्यतीत हो गया। मैं भी समय का भान भूल गया।
एकाएक वह विशाल गेट प्रकाश का द्वार बन गया। मैं सहसा बाहर निकल गया। शिखर पर बैठकर विचार कर रहा था कि अब क्या करना है? कहां चलना है? बस अपने गुरुधाम बरईपुर पहुंच गया।ऐसा प्रतीत हुआ कि कहीं पहुंचने के लिए सोंचना ही काफी है। जैसे कंप्यूटर का एक बटन दबाया नहीं कि परिणाम हाजिर है।
मैं गुरुदेव के समाधि मंदिर की परिक्रमा किया, साष्टांग प्रणाम किया। षोडश विधि से पूजन कर माता जी का भी पूजन किया। मैं अपने पूजन में इतना तल्लीन था कि अपने बाय-दाएं भी मुड़ कर नहीं देखा।
गुरुदेव की समाधि पर आकर पुनः दंडवत किया। फिर क्या था। गुरुदेव अपनी प्रतिमा से सशरीर बाहर आ गए । उधर से सदगुरु कबीर साहेब भी बाहर आ गए। गुरु मां बाहर आ गई। सभी एक-दूसरे का अभिवादन करने लगे। मैं इस स्थिति के लिए तैयार नहीं था न ही सोचा था। बस हड़बड़ा कर दंडवत पृथ्वी पर गिर कर सभी को प्रणाम किया। गुरुदेव मस्तक पर हाथ रखते हुए बोले-वत्स! उठो! यह हमारे इष्ट देव कबीर साहब है। योगी कभी भी मरता नहीं है। वह तो मृत्यु को साकार करता है। तुम जिस रास्ते से आए हो, उससे मृत्यु का रहस्य समझ में आ गया होगा। हम लोग केवल शरीर बदलते हैं। जैसे साधारण जन कपड़ा बदलते हैं। सद्गुरु करूंणावश स्वेच्छा से शरीर ग्रहण करता है। जिससे वह संसार में अवतार कहलाता है।सामने देखो मेरे मित्र इमाम साहब भी खड़े हैं। यह भी अपने इमामबाड़ा से बाहर निकल आए हैं। हम लोगों में कोई घृणा नहीं है। यह हमारे साधना काल में भी मददगार थे। अभी भी यह तुम्हारे साथ है। मैं उन्हें भी प्रणाम किया। वह अभिवादन स्वीकार करते हुए बोले--स्वामी जी! आप तो अपने शैशव काल में मेरे स्थान पर आते थे। वहां घंटों ध्यान करते थे। उस समय वहां जंगल ही था। आबादी नहीं थी। हां अब हिंदू-मुसलमान में नफरत पैदा हो गई है। क्या आत्मा, परमात्मा में भी हिंदू-मुसलमान है। स्वार्थी लोग अपने हित के लिए मजहब बना लिए हैं। वे अपने सांसारिक वासना पूर्ति करते हैं। उन्हें न इंसानियत से वास्ता है। न ही परम तत्व से।
मैं मंदिर के प्रांगण में नजर दौड़ाया। सर्वत्र प्रकाश से युक्त युवक-युवतियां ध्यान मग्न खड़े थे। सभी निर्विकार प्रसन्न मुद्रा में थे। दूर-दूर तक उनके चेहरे पर वासना नजर नहीं आती थी। जिधर देखता मैं उसे ही निहारता रह जाता था। यहां मैं बरसों रहा, यह लोग तो कभी दिखाई नहीं पड़े। गुरुदेव ने कहा, यह सभी कारण शरीर, आत्मा शरीर में आनंद ले रहे थे। यह शरीर धारण नहीं करना चाहते हैं। बस अपने में आनंदित हैं। हां ये लोग सदविप्रो को हर संभव सहायता करेंगे। मैं सभी को नमन किया। सभी मुस्कुरा कर मुझे भी प्रति -उत्तर दिए।
मेरा कौतूहल सदगुरु कबीर साहब की तरफ बढ़ गया। उनकी तरफ मुखातिब हुआ। वह हाथ उठा कर आशीर्वाद दिए। मैं उनसे उनके बीजक के संबंध में सुनना चाहा। उन्होंने कहा कि समय की मांग पर सद्गुरु कारणवश शरीर धारण करता है। वह आदमी का, जीवो का वैद्य होता है। रोगी के अनुसार दवा देता है। आगे बढ़ता जाता है। फिर तुम पूछोगे कि किस व्यक्ति को कौन-सी दवा दें? तो इसे वह कैसे याद रखेगा, याद रखता है कंपाउंडर। मैं व्यक्ति विशेष, स्थान विशेष, समय विशेष के अनुसार अपनी वाणी ओं का प्रयोग किया।उन वाणीयों को कभी-संजो कर नहीं रखा। अब मैं देखता हूं।की उंन वाणियों की विभिन्न प्रकार की व्याख्याए की जा रही है। उसमें अपनी भी मति उक्ति मिला दी गई है। जो व्यक्ति मेरा शत्रु था अर्थात मेरे विचारों से आहत था। वह मुल्ला , पुरोहित फिर जन्म लेकर मेरा ही लिबास ओढ़ कर फिर मेरी उक्ति को अपने मन के अनुसार गढ़ रहे हैं।
कुछ चतुर व्यापारी बार-बार अपने ही खानदान में मुझे जन्म लेने का दावा करते हैं। तो कुछ ऐसा प्रचारित करते हैं कि मैं ही सशरीर उन्हें दीक्षा दिया हूं। हमारे नाम पर विभिन्न प्रकार के पंथ मत संप्रदाय खड़े हो गए हैं। तुम जरा गौर करो---मेरे रहते-रहते वह मेरा विरोध किए। मुझे कहना पड़ा--"मेरे दुश्मन जेते, ते ते आकाश में तारे।'शिष्यत्व के नाम पर भी कोई खास उपलब्धि नहीं हुई। तभी मुझे कहना पड़ा---"जो मिला सो गुरु मिला शिष्य मिला नहीं कोय"। अब आप ही देखो। हमारे नाम पर कितनी बड़ी शिष्य मंडली है।
मैंने निवेदन किया--"गुरुदेव आप फिर एक बार आ जाए न।"वो जोर-जोर से हंसने लगे। बहुत देर तक हंसते रहे, फिर बोले---"अब मेरी क्या आवश्यकता है! अब तुम्हारे ही शरीर से कार्य करूंगा।"हां ध्यान रखना पाखंडी बड़े प्रबल होते हैं। वही सत्य का चेहरा ओढ़कर कर आते हैं। साधारण जीवों को भरमाते हैं। मुझे बाध्य होकर कहना पड़ा--
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