किसी भी व्यक्ति के परिवर्तन के लिए केवल बोल ही नही,शुभ भावना से ओतप्रोत विचारों का आदान प्रदान भी आवश्यक है
"किसी भी व्यक्ति के परिवर्तन के लिए केवल बोल ही नही,शुभ भावना से ओतप्रोत विचारों का आदान प्रदान भी आवश्यक है।"
पाटेश्वर धाम के संत राम बालक दास जी के संचालन में इन्हीं भावों से संपन्न पाटेश्वर धाम संस्थान के द्वारा विभिन्न कार्य संचालित किया जाता है जिसमें धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक कार्यक्रमों को इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु लगातार संचालित कर रहे हैं
इसमें प्रमुख भूमिका उनके द्वारा संचालित होने वाले प्रतिदिन के सत्संग जो कि ऑनलाइन सीता रसोई संचालन वाट्सएप ग्रुप में प्रातः 10:00 से 11:00 बजे और दोपहर 1:00 से 2:00 बजे किया जाता है, हजारो भक्त इसमें प्रतिदिन जुड़ते हैं अपनी जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करते हैं और अपने को धन्य करते हैं,वर्तमान में बाबा जी के श्री मुख से गीता पाठ से सभी अपने को धन्य तो कर ही रहे हैं अपने ज्ञान में भी वृद्धि कर रहे हैं एवं जीवन में उसको समाहित करने का भी पूर्ण प्रयास सभी के द्वारा किया जा रहा है
आज के गीता पाठ में बाबा जी ने बताया कि गीता के अध्याय 9 श्लोक 11 व 12 में हमें श्री कृष्ण जी कहते हैं कि सहनशील और दयालु सबका हित चाहने वाला शांत इस प्रकार जिसका स्वभाव हो सुशील स्वभाव जिसका आभूषण हो,वह सतपुरुष के लक्षण है कभी-कभी हम विचार करते हैं कि क्या हम सतपुरुष बन सकते हैं हम किसी संत या सतपुरुष को देखकर उसकी नकल करके ऐसा अपना स्वभाव बना सकते हैं तो भगवत गीता में श्री कृष्ण जी ने बताया है कि महापुरुषों ज्ञान संत स्वभाव बनने के लिए कोई कला नहीं होती जीवन में उन दिव्य गुणों को धारण करना उस पर सुदृढ़ रहना थोड़ा संकट आने पर धीरज त्याग कर डगमगा कर लक्ष्य को न खो देना यह सतपुरुष का स्वभाव है
स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि तब तक चलो जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए धैर्यवान व्यक्ति जब अपने लक्ष्य को निश्चित मानकर उसकी और चलता है और उस लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है तब वह महापुरुष या सतपुरुष की श्रेणी में गिना जाता है वह स्वयं उत्पन्न नहीं होते या अवतार लेकर नहीं आते वे केवल जीवन के रहस्य को जानकर उसे सुलझा कर वैराग्य को धारण कर मन को भ्रमित ना करते हुए आगे बढ़ते हैं वही महापुरुष होते हैं, परमात्मा के द्वारा यह निर्धारित होता है कि यह व्यक्ति महापुरुष या सतपुरुष की श्रेणी निभा सकता है तो वह उसे वह दायित्व प्रदान करते हैं
आज के सत्संग परिचर्चा में ऋचा बहन ने लौकिक अलौकिक जगत में अंतर जानने की विनती बाबाजी से कि इस विषय को स्पष्ट करते हुए बाबा जी ने बताया कि हर पक्ष के दो रूप होते हैं अपने दैनिक जीवन में भी हम देखते हैं कि एक जिसको हम स्थूल शरीर कहते हैं एक सूक्ष्म शरीर कहते हैं सूक्ष्म शरीर हमारे शरीर से दूर रहकर हमारे शरीर में होने वाली प्रतिक्रियाओं को देखता है वैसे ही लौकिक व अलौकिक जगत भी होता है जो हमारे भीतर बाहर दोनों ही और स्थित होता है इस संसार में भी है तो इस संसार से बाहर भी है,लौकिक वह जिसे हम चर्म चक्षु से देख सकते हैं अलौकिक वह जिसे हम अपने दिव्य दृष्टि से देख सकते है, यह आंतरिक दृष्टि हमारे त्रिनेत्र भी कहलाती है मन की आंखों से देखना भी हम इसे कहते हैं अर्थात आत्म चक्षु को समाधि ध्यान धारणा प्रतिदिन मेडिटेरिशन के द्वारा उसे खोलकर दिव्यता का बोध प्राप्त कर अपने अंदर की ओर जा सकने की क्षमता बनाता है तब हम उस जगत को भी देख पाएंगे जो हम इस लोक में रहकर नहीं देख पाते हमें इस लोक में नहीं दिखाई देता वह जगत इस जगह से बहुत अधिक दिव्य होता है जो इस जगत के दुख और संकटों से परे होता है हमें तो अंदर की ज्योति को जागृत करना है इसीलिए हमें अपने दृष्टि को समाधि की ओर ले जाना चाहिए और वहां से जो हमें दिखाई दे वही अलौकिक जगत होता है
इस प्रकार आज का अद्वितीय सत्संग संपन्न हुआ